मेरे मन की आशायें जो ,
उठने से पहले दब जाती हैं।
मैं इतनी कमज़ोर नहीं हूँ ,
फिर क्यों सपने बन कर रह जाती हैं।
परिंदो की तरह उड़ना चाहती हूँ मैं ,
खुली हवा मैं जीना चाहती हूँ ,
तस्वीर बन कर नहीं मैं ,
ज़िंदा रहकर जीना चाहती हूँ।
फिर भी एक डोर है ,
जो मुझे पीछे खीच ले जाती है ,
मैं इतनी कमज़ोर नहीं हूँ,
फिर क्यों सपने बन कर रह जाती है।
मेरी आशाओं के घर में ,
सोने का कोई महल नहीं ,
उम्मीदों के घर की एक ,
कोशिश है ये पहल नहीं।
फिर क्यों समाज के बेड़िया मुझे ,
क़ैद कर ले जाती हैं।
मैं इतनी कमज़ोर नहीं हूँ ,
फिर क्यों सपने बन कर रह जाती हैं।
भूमिका भंडारी अग्रवाल